Lekhika Ranchi

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रविंद्रनाथ टैगोर की रचनाएंःअंतिम प्यार 5



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रोगी की रात जैसे आंखों में निकल जाती है उसकी वह रात वैसे ही समाप्त हुई। नरेन्द्र को इसका तनिक भी पता न हुआ। उधर वह कई दिनों से चित्रशाला ही में सोया था। नरेन्द्र के मुख पर जागरण के चिन्ह थे। उसकी पत्नी दौड़ी-दौड़ी आई और शीघ्रता से उसका हाथ पकड़कर बोली- अजी बच्चे को क्या हो गया है, आकर देखो तो।
नरेन्द्र ने पूछा- क्या हुआ?
पत्नी लीला हांफते हुए बोली- शायद हैजा! इस प्रकार खड़े न रहो, बच्चा बिल्कुल अचेत पड़ा है।
बहुत ही अनमने मन से नरेन्द्र शयन-कक्ष में प्रविष्ट हुआ।
बच्चा बिस्तर से लगा पड़ा था। पलंग के चारों ओर उस भयानक रोग के चिन्ह दृष्टिगोचर हो रहे थे। लाल रंग दो घड़ी में ही पीला हो गया था। सहसा देखने से यही ज्ञात होता था जैसे बच्चा जीवित नहीं है। केवल उसके वक्ष के समीप कोई वस्तु धक-धक कर रही थी, और इस क्रिया से ही जीवन के कुछ चिन्ह दृष्टिगोचर होते थे।
वह बच्चे के सिरहाने सिर झुकाकर खड़ा हो गया।
लीला ने कहा- इस तरह खड़े न रहो। जाओ, डॉक्टर को बुला लाओ।
मां की आवाज सुनकर बच्चे ने आंखें मलीं। भर्राई हुई आवाज में बोला- मां! ओ मां!!
मेरे लाल! मेरी पूंजी। क्या कह रहा है? कहते-कहते लीला ने दोनों हाथों से बच्चे को अपनी गोद से चिपटा लिया। मां के वक्ष पर सिर रखकर बच्चा फिर पड़ा रहा।
नरेन्द्र के नेत्र सजल हो गए। वह बच्चे की ओर देखता रहा।
लीला ने उपालम्भमय स्वर में कहा-अभी तक डॉक्टर को बुलाने नहीं गये?
नरेन्द्र ने दबी आवाज में कहा-ऐं...डॉक्टर?
पति की आवाज का अस्वाभाविक स्वर सुनकर लीला ने चकित होते हुए कहा-क्या?
कुछ नहीं।
जाओ, डॉक्टर को बुला लाओ।
अभी जाता हूं।
नरेन्द्र घर से बाहर निकला।
घर का द्वार बन्द हुआ। लीला ने आश्चर्य-चकित होकर सुना कि उसके पति ने बाहर से द्वार की जंजीर खींच ली और वह सोचती रही- यह क्या?

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